|| भगवत गीता के श्लोक अर्थ सहित | Bhagwat Geeta shlok with meaning in Hindi | Bhagwat Geeta ke shlok Hindi mein | गीता की 18 बातें कौन सी है? | गीता के लेखक कौन हैं? ||
Bhagwat Geeta shlok in Hindi : – भगवत गीता का हमारे जीवन में प्रमुख स्थान है। हिंदू धर्म में जितने भी धार्मिक ग्रंथ है, उसमे से गीता को सबसे अधिक महान बताया गया (Bhagwat Geeta ke shlok Hindi mein) है। यह भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध की शुरुआत से पहले युद्ध भूमि के बीच में खड़े होकर धनुर्धर योद्धा अर्जुन को जीवन का दिया गया गूढ़ ज्ञान था। श्री कृष्ण ने गीता के माध्यम से जीवन व मरण के कई रहस्यों से पर्दा उठाया और मनुष्य को उसके जीवन का औचित्य समझाया। यही कारण है कि भगवत गीता में कही गए बाते आज तक प्रासंगिक है और हमेशा ही रहेगी।
ऐसे में आपके मन में भी बहुत बार भगवत गीता के श्लोक पढ़ने या उनका अर्थ जानने की जिज्ञासा उठती होगी और आप इसके बारे में इधर उधर रिसर्च भी करते (Bhagwat Geeta shlok Hindi mein) होंगे। ऐसे में हम आपकी खोज पर विराम लगाते हुए इस लेख के माध्यम से गीता के कुछ ऐसे प्रसिद्ध श्लोको को आपके सम्मुख प्रस्तुत करेंगे जिन्हें पढ़ कर आपको एक बहुत ही बढ़िया सीख मिलेगी। आइए पढ़ें भगवत गीता के प्रमुख श्लोक अर्थ सहित।
भगवत गीता के श्लोक अर्थ सहित (Bhagwat Geeta shlok with meaning in Hindi)
इस लेख के माध्यम से आपको भगवत गीता के एक या दो नहीं बल्कि सभी प्रसिद्ध श्लोक पढ़ने को मिलेंगे। इन्हें पढ़ कर आपको भगवत गीता की प्रसिद्धि और प्रासंगिकता का अनुमान लग जाएगा। यह सभी श्लोक संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं क्योंकि पहले यही भाषा प्रचलन में थी तथा श्री कृष्ण ने भी अर्जुन को संस्कृत भाषा में ही भगवत गीता का ज्ञान दिया (Bhagwat Geeta ke shlok with meaning) था। तो यह सभी श्लोक संस्कृत भाषा में ही आपके समक्ष प्रस्तुत होंगे।
अब आप सोच रहे होंगे कि आपको तो संस्कृत भाषा आती नहीं या उतनी अच्छे से नहीं आती हैं तो फिर आप इनका अर्थ कैसे समझेंगे। तो ज्यादा चिंता मत कीजिए क्योंकि इस लेख के माध्यम से हम आपको केवल श्लोक का संस्कृत वर्जन ही नही देंगे बल्कि साथ के साथ उनका विस्तार से हिंदी अर्थ भी (Bhagwat Geeta ke shlok arth sahit) समझाएंगे। इससे आप उस श्लोक की महत्ता और अर्थ दोनों ही समझ पाएंगे। तो आइए पढ़े भगवत गीता के लगभग सभी प्रसिद्ध श्लोक और साथ में उनका अर्थ भी।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं कि जहाँ कही भी धर्म को क्षति पहुंचाई जाती है और अधर्म बहुत अधिक बढ़ जाता है तथा धर्म उसके सामने छोटा हो जाता है तब तब भगवान स्वयं अपना अवतार लेते हैं और अधर्म का नाश करते हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का केवल कर्म पर ही अधिकार हो सकता है, उसके फल पर नही अर्थात यदि मनुष्य सोचता है कि वह यह भी निर्धारित कर लेगा कि किस कर्म का क्या फल मिल सकता है तो यह संभव (Bhagwat Geeta ke shlok Hindi arth sahit) नहीं है। किसी भी कर्म का क्या फल मिलेगा और क्या नहीं, यह ईश्वर पर निर्भर होता है। इसी कारण मनुष्य को केवल कर्म करने पर ही ध्यान देना चाहिए ना कि उसके फल पर।
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण ईश्वर के अवतार लेने के उद्देश्य के बारे में बता रहे (Bhagwat Geeta ke shlok aur unke arth) हैं। वे यहाँ कहना चाहते हैं कि ईश्वर का अवतार इस धरती पर तभी जन्म लेता है जब उसे अच्छे मनुष्यों की रक्षा करनी होती है और पापियों का नाश करना होता है व साथ ही ऐसा करके वे धर्म की फिर से स्थापना करते हैं। तो ईश्वर के द्वारा हर युग में अपना एक अवतार लिया जाता है जिसके द्वारा वे यह तीनो कर्म करते हैं।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण मनुष्य के द्वारा कर्म करने की महत्ता की व्याख्या कर रहे हैं। उनके अनुसार इस धरती पर जन्म लेने वाला चाहे मनुष्य हो या अन्य कोई जीव जंतु, उन सभी के द्वारा हर समय कर्म किया जाता रहता है व कोई भी बिना कर्म किये जीवित नहीं रह सकता है। इस सृष्टि के द्वारा सभी जीव जंतुओं व मनुष्यों को कर्मो के द्वारा ही आगे बढ़ाया जाता है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
अर्थ: इस कथन के माध्यम से श्री कृष्ण बता रहे हैं की उन्हें किस तरह के मनुष्य सबसे अधिक प्रिय होते हैं। तो ऐसे मनुष्य जिन्हें ना तो प्रसन्नता की अनुभूति हो, ना ही वे किसी से नफरत करते हो, जिन्हें सुख दुःख की भी अनुभूति ना होती हो, जो सांसारिक मोहमाया से दूर है और शुभ अशुभ कर्मो में भी नहीं मानते है, वही मनुष्य ईश्वर और श्री कृष्ण को सबसे अधिक प्रिय होता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण उत्तम मनुष्य के आचरण, व्यवहार और उसके प्रभाव के बारे में बात कर रहे हैं। उनके अनुसार इस विश्व में जो उत्तम मनुष्य है, वह जैसा कर्म करता है या जैसा व्यवहार करता है, उसी के अनुसार ही अन्य आम मनुष्य भी व्यवहार करते हैं। अब जिस प्रकार का उदाहरण वह उत्तम मनुष्य प्रस्तुत करता है, ठीक उसी तरह का कर्म आम मनुष्य करते हैं और उससे शिक्षा लेते हैं।
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण ने आत्मा के महत्व को बताया है जो कि परमात्मा का ही एक अंश होती है। इसके द्वारा वे कहना चाहते हैं कि मनुष्य के शरीर में जो आत्मा वास करती है, उसे ना तो किसी शस्त्र के द्वारा काटा जा सकता है, ना ही उसे आग के द्वारा जलाया जा सकता है, ना ही उसे पानी के द्वारा भिगोया जा सकता है और ना ही उसे हवा के द्वारा सुखाया जा सकता है। इस तरह से आत्मा अजर अमर होती है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
अर्थ: इस श्लोक के द्वारा श्री कृष्ण अहंकारी मनुष्य की व्याख्या करते हैं। उनके द्वारा अहंकारी मनुष्य की परिभाषा बताते हुए कहा गया है की जो मनुष्य बाहर से अपनी इन्द्रियों के नियंत्रण में होने का दिखावा करता है किंतु मन ही मन वह उन इन्द्रियों के वश में रहता है तो उसे अहंकारी की संज्ञा दी जा सकती है। वह मन में अपने लिए कई तरह की भावना को रखता है जबकि बाहर से कुछ और दिखने का प्रयास कर रहा होता है।
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा दे रहे हैं, बजाए कि वे बिना कर्म किये यूँ ही बैठे रहे। तो यहाँ वे कहना चाह रहे हैं कि यदि अर्जुन खड़ा होकर युद्ध करता है और किसी कारणवश मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी और यदि वह विजयी रहता है तो उसे धरती के सभी सुख भोगने को मिलेंगे। इस तरह से अर्जुन को कर्म करते रहना चाहिए और युद्ध में भाग लेना चाहिए।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण इस धरती के लिए प्रकृति की महत्ता को समझा रहे हैं और साथ के साथ अहंकारी और अज्ञानी मनुष्य को बता भी रहे हैं। यहाँ वे कहना चाहते हैं कि इस पृथ्वी पर जो भी होता है वह प्रकृति के गुणों के अनुसार और उसकी इच्छा के अनुरूप ही होता है। यदि किसी मनुष्य को लगता है कि उसके हाथ में सब कुछ है और वही सब कर सकता है तो उसे मुर्ख, अज्ञानी, अहंकारी इत्यादि संज्ञाएँ दी जा सकती है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
अर्थ: अब यदि हम कोई कर्म कर रहे हैं और हम उसी के बारे में ही सोचते रहेंगे या उसकी विषय वस्तु में खो जाएंगे तो हमें उससे मोह हो जाएगा और हम उसी की तरफ ही आकर्षित होते रहेंगे। ऐसे में यदि किसी कारणवश उस काम में कोई संकट आता है या वह हो नहीं पाता है या कोई अन्य कारण से वह काम अटक जाता है तो हमारे मन में क्रोध की भावना उत्पन्न होती है। यह क्रोध की भावना हमारा सर्वनाश कर देती है। इसलिए बेहतर यही रहता है कि हम कर्म के प्रति आकर्षित ना होकर बस वह कर्म करते जाए।
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
अर्थ: यहाँ श्री कृष्ण यह बता रहे हैं कि किसी मनुष्य को शांति किस तरह से मिल सकती है। तो इसके लिए सबसे पहले तो मनुष्य को ईश्वर में श्रद्धा रखने और उन पर विश्वास करने की जरुरत होती है। इसी के साथ उन्हें सांसारिक मोहमाया को त्याग कर अपनी इन्द्रियों को वश में करना होगा और उन्हें अपने नियंत्रण में रखना होगा। अब इसी के साथ साथ जितना तेजी के साथ वे ज्ञान को प्राप्त करेंगे, उतनी ही तेजी के साथ उन्हें शांति भी प्राप्त होगी।
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण मनुष्य को क्रोध ना करने को कह रहे हैं और क्रोध के नकारात्मक प्रभाव की व्याख्या कर रहे हैं। उनके अनुसार जो मनुष्य क्रोधित हो जाता है तो उससे उसकी सोचने समझने की क्षमता ख़त्म हो जाती है। सोचने समझने की शक्ति ख़त्म होने से उसे मति भ्रम हो जाता है। मति के भ्रमित हो जाने से उसकी बुद्धि काम नहीं करती है और जिस मनुष्य की बुद्धि काम नहीं करती है, वह मनुष्य खुद का नाश कर लेता है।
सत्वं सुखे सञ्जयति रज: कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे सञ्जयत्युत॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण मनुष्य के द्वारा अपनाए जाने वाले तीनो गुणों और उनके प्रभाव के बारे में बता रहे हैं। उनके अनुसार जो मनुष्य सत्व गुण को अपनाता है, उसे परम सुख की प्राप्ति होती है, जो मनुष्य रजो गुण को अपनाता है, उसे कर्म सुख की प्राप्ति होती है तथा जो मनुष्य तमो गुण को अपनाता है, उस मनुष्य का नाश हो जाता है। इस तरह तीनो गुण मनुष्य के जीवन पर अलग अलग प्रभाव डालते हैं।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।
अर्थ: इस श्लोक के द्वारा श्री कृष्ण तामस कर्म के बारे में बात कर रहे हैं और उसकी व्याख्या कर रहे हैं। उनके अनुसार यदि मनुष्य किसी कर्म को करने से पहले उसके परिणाम ना देखे, उससे क्या कुछ हो सकता है, कितनी हानि या नुकसान उठाना पड़ सकता है, तथा वह बिना जानकारी लिए और बिना बुद्धि के शुरू किया गया कर्म होता है तो उसे तामस कर्म कहा जाता है।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
अर्थ: इस श्लोक के द्वारा श्री कृष्ण यज्ञ करने की महत्ता को बता रहे हैं और मनुष्य को यज्ञ क्यों करते रहना चाहिए, इसके बारे में समझा रहे हैं। उनके अनुसार मनुष्य की उत्पत्ति अर्थात उसका जन्म या पालन पोषण अन्न के द्वारा होता है। अब यह अन्न वर्षा के द्वारा ही उगता है। और वर्षा के होने के पीछे अग्नि का हाथ होता है तो यह अग्नि यज्ञ के द्वारा आती है। अब इन यज्ञ का महत्व वेदों में बताया गया है और उन वेद्दों को भगवान ब्रह्मा ने लिखा है। तो इस तरह यज्ञ, वेद व ईश्वर सर्वोप्पति हो जाते हैं जो मनुष्य की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार होते हैं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
अर्थ: इस श्लोक के माध्यम से श्री कृष्ण अपनी महत्ता अर्थात ईश्वर की महत्ता के बारे में बात कर रहे हैं। जब अर्जुन युद्ध भूमि में होने वाले पाप कर्मों के परिणाम को लेकर चिंतित थे और डर रहे थे तब श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया था कि हे अर्जुन, जब युद्ध समाप्त हो जाए तब तुम सभी तरह के धर्मों और सांसारिक मोहमाया का त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जाना, मैं तुम्हे हर पाप से मुक्त कर दूंगा। इस तरह से ईश्वर की शरण में चले जाने से सभी तरह के पाप से मुक्ति मिल जाती है।
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:॥
अर्थ: जो मनुष्य ज्ञान से भरे हुए होते हैं और अपनी बुद्धि का भरपूर इस्तेमाल करते हैं वे किसी ब्राह्मण और चांडाल में भी समान रूप से परमात्मा को खोज लेते हैं। इसी तरह वे अन्य जीव जंतुओं जैसे कि गाय, कुत्ता, हाथी इत्यादि में भी परमात्मा के अंश को खोज लेते हैं। उन्हें हर जगह मनुष्य और जीव जंतुओं के अंदर परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं और उसे देख कर वे शांति की अनुभूति करते हैं।
भगवत गीता के श्लोक अर्थ सहित – Related FAQs
प्रश्न: भगवद गीता में सबसे महत्वपूर्ण श्लोक क्या है?
उत्तर: भगवद गीता में सबसे महत्वपूर्ण श्लोक यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् है।
प्रश्न: गीता की 18 बातें कौन सी है?
उत्तर: गीता की 18 बातों के बारे में प्रमुख बातें हमने आपको इस लेख के माध्यम से बता दी है जिसे आपको पढ़ना चाहिए।
प्रश्न: गीता के अनुसार जीवन क्या है?
उत्तर: गीता के अनुसार जीवन एक कर्म है और मनुष्य को फल की इच्छा किये बिना कर्म करते रहना चाहिए।
प्रश्न: गीता के लेखक कौन हैं?
उत्तर: गीता के लेखक महर्षि वेदव्यास जी है।
तो इस तरह से आपने इस लेख के माध्यम से भगवत गीता के कई श्लोको को अर्थ सहित जान लिया है और उनसे बहुत कुछ सीख लिया है। नीचे टिप्पणी करके हमें अवश्य बताइयेगा कि आपको भगवत गीता का कौन सा श्लोक सबसे ज्यादा पसंद आया और उससे आपको क्या सीख मिली।